विरोध का पाखंड : 1975 की  इमरजेंसी के साथ खड़ा था संघ और जनसंघ

विरोध का पाखंड : 1975 की  इमरजेंसी के साथ खड़ा था संघ और जनसंघ
इस 25 जून की आधी रात को 1975 में लगे आंतरिक आपातकाल – जिसे उस जमाने में इमरजेंसी के नाम से ज्यादा जाना जाता था — की आधी सदी पूरी हो जायेगी। हुआ कुछ यूं था कि 12 जून 1975 को  इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। यह वह समय था, जब पूरा देश — खासतौर से उसके विद्यार्थी और युवा — सड़कों पर थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ गुजरात और बिहार से शुरू हुए छात्र आंदोलन की कमान, तब तक संन्यास में बैठे, जयप्रकाश नारायण ने संभाल ली थी और वह बहुत कम समय में आजाद भारत का सबसे विराट और व्यापक भागीदारी वाला जनआंदोलन बन गया था। छात्रों का आक्रोश एक चिंगारी भर था, असल बेचैनी और छटपटाहट आमतौर से कोई 30 दशक की नीतियों की विफलताओं, कांग्रेस द्वारा दिए गए नारों के खोखलेपन और खासतौर से इंदिरा गांधी के सम्पूर्ण एकल नियंत्रण वाली कांग्रेस के एकदलीय तानाशाही की ओर तेजी से बढ़ने के विरुद्ध था। इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल में सीपीएम की अगुआई वाले वामपंथी मोर्चे, उसमें भी विशेष रूप से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), के खिलाफ हिंसक और अलोकतान्त्रिक हमलों के साथ की गयी थी। 

सीपीएम  देश की पहली पार्टी थी जिसने इस तानाशाही की असाधारण बर्बरता को झेला। 1972  के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में पुलिस और गुंडा वाहिनियों द्वारा किये गए बूथ कब्जों – रिगिंग – ने पूरा निर्वाचन ही मखौल बनाकर रख दिया था। उसके बाद 1977 तक लगातार 5 वर्षों तक लगातार चले अर्ध- फासिस्ट आतंक में 1200 से अधिक सीपीएम नेताओं की हत्याएं, पार्टी और जनसंगठनों के दसियों हजार कार्यकर्ताओं की उनके घर, बस्ती, गाँवो से बेदखली, बंगाल में लोकतंत्र का स्थगित किया जाना उस इमरजेंसी की पूर्व पीठिका थी, एक ट्रेलर था। सत्ता पार्टी का यही दमनात्मक रवैया अलग-अलग तीव्रताओं के साथ केरल और त्रिपुरा में भी माकपा और उसके जनसंगठनों के प्रति रहा। देश के अन्य राज्यों में भी इसे देखा गया। सीपीएम वह पहली पार्टी थी, जिसने इस रुझान को उसकी समग्रता में देखा और उसकी सर्वग्रासी संक्रामकता को पहचाना। इमरजेंसी के तीन वर्ष पहले 1972 में  मदुरै में हुई अपनी पार्टी कांग्रेस में इसने दर्ज किया और चेतावनी दी कि इन हमलों के जरिये देश पर एकदलीय तानाशाही थोपने का जो सिलसिला  शुरू हुआ है, वह सिर्फ सीपीएम तक सीमित नहीं रहने वाला, यहीं नहीं रुकने वाला। वह समूचे भारत में लोकतंत्र को संकुचित और बाधित करेगा और संसदीय लोकतंत्र को तानाशाही में बदल देगा। यही हुआ भी और 25 जून की आधी रात को लगी इमरजेंसी के रूप में तब तक के चरम पर जा पहुंचा। 

25 जून 75 से 21 मार्च 77 — जब लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की जबरदस्त हार के बाद आधिकारिक तौर पर इसे हटाया गया – के  इन 21 महीनों में इस देश ने जितनी मुश्किलें भुगती हैँ, उन तात्कालिक ब्योरों  के विस्तार में जाने  की बजाय इसकी 50वीं बरसी पर इसके उन दूरगामी प्रभावों और स्थायी आघातों पर नजर डालना उचित होगा, जिन्होंने इस देश की राजनीति और समाज पर नकारात्मक असर छोड़ा।

25 जून 1975 को लगी  इमरजेंसी वह हादसा था, जिसने एक तरह से भारतीय समाज के रूपांतरण को रोक दिया। लोकतंत्र के उजाले की तरफ कदम बढ़ाने की सम्भावनाओं को रोककर देश को तानाशाही के अन्धकार युग की ओर वापस धकेल दिया। आजाद भारत के इतिहास में 1975 की 25 जून भारतीय लोकतंत्र का काला दिन है। इसने न सिर्फ लोकतन्त्र के प्रति भारतीय जनता के विश्वास को खण्डित किया, बल्कि इसी कालिमा ने वह परिस्थितियां उत्पन्न की, जिनका नतीजा आज गहरे होते अन्धकार में भेड़ियों के राज्याभिषेक, बर्बरता के महिमामण्डन और हत्यारों की प्राणप्रतिष्ठा के रूप में सामने है। यह वह हादसा था, जिसने काफी हद तक भारतीय समाज के रूपांतरण को भी रोक दिया — नतीजे में मध्य युग की ओर वापसी के लिए आतुर तत्पर अमानुषों के हाथ में अगुआई आ गयी। यह एक बुरा और निंदनीय हादसा था, जिससे सबक लिए बिना वर्तमान और भविष्य में संविधान और लोकतंत्र, यहां तक कि 'इंडिया दैट इज भारत' की सलामती की कल्पना तक नहीं की जा सकती। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि 26 जून 1975 नहीं होता, तो बहुत मुमकिन है कि साम्प्रदायिक हिन्दुत्व के प्रतीक मोदी के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने वाला 26 मई 2014 भी नहीं होता। 

तब की घोषित इमरजेंसी और अब का अघोषित आपातकाल

आज का जो आफ़तकाल है, कि उसकी तुलना में अब वह इमरजेंसी मामूली लगती है। इंदिरा गांधी ने जो किया, वह कम-से-कम संविधान की किसी धारा में तो था, मगर आज कारपोरेट और हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिकता के गठजोड़ वाले मोदी राज की अघोषित इमरजेंसी में लोकतंत्र, लिखने-बोलने की आजादी, देश, समाज और खुद संविधान के साथ जो किया जा रहा है, वह संविधान की किसी धारा-उपधारा, लग्नक-सहलग्नक में नहीं है। यह उन 20-21 महीनों के संत्रास से कई गुना ज्यादा तीक्ष्ण और कहीं ज्यादा सर्वव्यापी और सर्वग्रासी है। 

उस इमरजेंसी में प्रेस पर सेंसरशिप थी — मगर वह सेंसरशिप के नियमों के तहत ‘आधिकारिक’ रूप से की जाती थी। जो नहीं छपना है, उसे बाकायदा किसी के द्वारा तय किया जाता था। आज जिस तरह की सेंसरशिप से मीडिया गुजर रहा है, वह उस जमाने की तुलना में कहीं ज्यादा निर्लज्ज और भयानक है। उस दौर के लिए एक  कटाक्ष वाक्य था कि ‘प्रेस से झुकने के लिए कहा गया, मगर वह रेंगने लगे”। आज वह रेंगने से भी आगे जाकर, उनके जूतों के फीतों में लिपट कर लिथड़ने की हद तक पहुंच गया है। 

मीडिया ने ‘गोदी मीडिया’ का नया नाम कमा लिया है।सम्पादक की जगह दलालों और ठगों से भरी जा चुकी है। बहुमत मीडिया संस्थानों पर कारपोरेट द्वारा लगभग पूरी तरह से कब्जा किया जा चुका है। धंधों-व्यवसायों में आपस में गलाकाट प्रतिद्वंद्विता में सातों दिन, चौबीसों घंटा लीन रहने के बावजूद ये कोर्पोरेट्स अपने स्वामित्व वाले मीडिया में एक दूजे की चोरी छुपाने के लिए हर दम तत्पर और आतुर हैं। तानाशाही सिर्फ छपने-न छपने तक सीमित नहीं है, न झुकने वाले पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की प्रताड़ना और यातनायें, फर्जी आरोप गढ़ कर उन्हें जेलों में डालने से लेकर दिनदहाड़े की जाने वाली हत्याओं तक पहुंच गयी है। सोचने-समझने और असहमत होने की हिम्मत रखने वाले लेखकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों की आवाज को कुचला जा रहा है। औपचारिक मीडिया को पूरी तरह नख दंत विहीन करने के बाद अब अघोषित आपातकाल की सुपर सेंसरशिप अनौपचारिक माने जाने वाले सोशल मीडिया-यूट्यूब, ट्विटर-एक्स, फेसबुक, इन्स्टाग्राम को निशाने पर ले रही है। 

उस जमाने में डीआईआर (डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल) और मीसा (मेंटेनेंस ऑफ़ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) जैसे प्रावधानों में गिरफ्तारियां हुआ करती थीं, जिनमें कुछ न कुछ, किसी न किसी तरह के रिव्यू का, अदालती समीक्षा और पुनरीक्षण का प्रावधान हुआ करता था। अब यूएपीए जैसे क़ानून आ गए है, जिनमें न रिव्यू है, ना अदालती हस्तक्षेप से ही न्याय पाने की पर्याप्त संभावना है। इनका कितना भयावह दुरुपयोग हो रहा है, यह 8-10 वर्ष की जेल काटकर निर्दोष छूटने वाले सैकड़ों उदाहरणों से समझा जा सकता है। एक नई दंड और अपराध संहिता लागू करके सामान्य आपराधिक कानूनों और पुलिसिया जांच प्रक्रिया को ही मीसा जैसे उस जमाने के कानूनों से कहीं ज्यादा सख्त और निरंकुश बना दिया गया है।

संविधान के बुनियादी नागरिक अधिकार, बिना घोषित रूप से इमरजेंसी लगाए ही, ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं। ईडी, सीबीआई और इन्कम टैक्स जैसे महकमे भाजपा ने अपने शिकारी झुंडों में बदल दिए हैं। चुनाव आयोग को भाजपा दफ्तर की घुड़साल में खूंटे से बांध दिया गया है।इतना सब तो उस इमरजेंसी में नहीं हुआ था — कहीं हुआ भी था, तो इतनी भयानक व्याप्ति के साथ तो नहीं ही हुआ था। और जो, एक न्यायाधीश के अपवाद को छोड़कर, उस कालखंड में सोचा तक नहीं गया था, इस अघोषित इमरजेंसी में वह काम – न्यायपालिका को नाथने का काम – भी किया जा रहा है। 

हर तानाशाही अंतत: लुटेरे वर्ग की लूट को आसान बनाने के लिए होती है ; इदिरा गांधी की लगाई इमरजेंसी में भी मेहनतकशों, खासकर मजदूरों पर हमले हुए। उनका बोनस आधा कर दिया गया। वामपंथ और श्रमिक संगठनों को कुचलकर उन्हें निहत्था करने की कोशिश की गयी। मगर मोदी की अघोषित इमरजेंसी उससे हजार गुना आगे जा चुकी है ; लूट को आसान बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोडी जा रही । मजदूरों को बंधुआ बनाने के चार कोड, किसानों को बर्बाद करने की नीतियाँ और क़ानून,  शिक्षा को पूरी तरह तबाह करने की नीति और देश को रोजगार का रेगिस्तान बनाने के हर मुमकिन-नामुमकिन रास्ते पर तेजी से चला जा रहा है। 
विश्वविद्यालय जेल की बैरकों में बदले जा रहे हैं, नए जागरूक इंसानों की जगह उन्मादी विवेकहीन भीड़ तैयार की जा रही है। सिर्फ आर्थिक ही नहीं, सामाजिक शोषण के भी सारे त्रिशूल, तलवार, बघनखे धो-पोंछकर मनुस्मृति के गुटके की कालिमा से चमकाए जा रहे हैं।महिलाएं अतीत की अंधी गुफाओं में धकेली जा रही हैं — लोकतंत्र को मखौल बना दिया गया है। संविधान के अक्षर-अक्षर को धुंधला बनाया जा रहा है। यही सिलसिला जारी है। जनता के बहुमत द्वारा ठुकराए जाने और अल्पमत में लाये जाने के बाद भी इरादे तो बदले ही नहीं, रफ़्तार भी कम नहीं हुई है।  

इमरजेंसी के साथ खड़ा था संघ और जनसंघ

इमरजेंसी की 50वी बरसी पर भाजपा खुद को इसके खिलाफ लड़ाई की योद्धा साबित करने में जुटी है। इससे बड़ा झूठ और पाखण्ड कोई और नहीं हो सकता। इसमें कोई शक नहीं कि इमरजेंसी के बाद बने माहौल का सबसे ज्यादा फायदा इसी गिरोह ने उठाया है। जनसंघ से जनता पार्टी, फिर भारतीय जनता पार्टी होते हुए यह आज की स्थिति तक पहुंचा। मगर इमरजेंसी में यह इंदिरा गांधी के आगे पूरा लम्बलोट और दंडवत था।
 
यही आरएसएस और भाजपा का पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ — उस इमरजेंसी में भी, जेलों में जाने के बाद भी आपातकाल के समर्थन और इंदिरा गांधी की तारीफ में कसीदे काढ़ रहे थे। माफीनामे की चिट्ठियों की बाढ़ ला रहे थे। दस्तावेजी सबूत और प्रत्यक्षदर्शी प्रमाण है कि उस इमरजेंसी में सीपीएम, कुछ समाजवादियों और सर्वोदयियों को छोड़ कर ऐसा एक भी नहीं बचा था, जिसने माफीनामे न भेजे हों, इंदिरा और संजय गांधी के चरणों में शरणागत होने के एलान न किये हों। इन पंक्तियों का लेखक इमरजेंसी की जेल अवधि में इन संघियों के रुदन, विलाप के वृन्दगान और घुटनों के बल चलकर की गयी याचनाओं का गवाह और कईयों के आंसूओं का पोंछनहार रहा है।    

आर एस एस प्रमुख की चिट्ठी : गुहार में इमरजेंसी का खुला समर्थन

आरएसएस की खासियत यह है कि वह कायरता को सांस्थानिक रूप देकर उसे इतना आम बना देता है कि जो कायर नहीं होते हैं, अकेला-अकेला, लोनली-लोनली महसूस करने लगते हैं। अंग्रेजों के जमाने में इसने यही किया। यही इमरजेंसी में हुआ। जेल में जाने के बाद मार चिट्ठियां लिख-लिखकर इंदिरा गांधी के 20 सूत्रीय और संजय गांधी के 5 सूत्रीय कार्यक्रमों के कसीदे काढ़े थे और आरएसएस प्रमुख देवरस सहित नीचे से ऊपर तक सबने सावरकर-आसन लगाकर माफियां माँगी थी। इंदिरा गांधी, संजय गांधी, वीसी शुक्ला और बंसीलाल तक दूत दौड़ाये थे। रिहा करने की गुहार की थी, ताकि बाहर निकल कर सबके सब 25 सूत्री कार्यक्रम को लागू कराने के राष्ट्रभक्ति के काम में प्राण-पण से जुट सकें। तत्कालीन संघ प्रमुख ने तो बाकायदा लिखा-पढ़ी में चिट्ठियां भी लिखी थीं। इन चिट्ठियों-संदेशों मे इंदिरा गांधी के बदनाम 20 सूत्रीय कार्यक्रम और संजय गांधी के कुख्यात 5 सूत्री कार्यक्रम – जिसका एक परिणाम जबरिया नसबन्दी थी — को राष्ट्रहित में किये जा रहे कार्य निरूपित करते हुए कातर गुहार की गयी थी कि हम सब को रिहा किया जाए, ताकि इन दोनों ‘महान कार्यक्रमों’ को पूरा करने के राष्ट्रीय कर्तव्य में आरएसएस भी प्राणपण से जुट सके। आरएसएस की ये चिट्ठियां राष्ट्रीय रिकॉर्ड का हिस्सा हैं, सार्वजनिक प्रकाशनों में भी उपलब्ध हैं।  

इसके तब के सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी को पहली चिट्ठी  22 अगस्त, 1975 को लिखी, जिसकी शुरुआत इस तरह थी :  ”मैंने 15 अगस्त, 1975 को रेडियो पर लाल क़िले से राष्ट्र के नाम आपके संबोधन को यहां कारागृह (यरवदा जेल) में सुना था। आपका यह संबोधन संतुलित और समय के अनुकूल था। इसलिए मैंने आपको यह पत्र लिखने का फ़ैसला किया।’’ 10 नवंबर, 1975 को इंदिरा गांधी को एक और पत्र लिखा। इसमें ”सुप्रीम कोर्ट के सभी पाँच न्यायाधीशों ने आपके चुनाव को संवैधानिक घोषित कर दिया है, इसके लिए हार्दिक बधाई।’’ यह बधाई देते हुए आगे बढ़कर यहाँ तक कह दिया कि ”आरएसएस का नाम जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के साथ अन्यथा ही जोड़ दिया गया है। सरकार ने अकारण ही गुजरात आंदोलन और बिहार आंदोलन के साथ भी आरएसएस को जोड़ दिया है… संघ का इन आंदोलनों से कोई संबंध नहीं है…।’’ 

इंदिरा गांधी ने जब इन चिट्ठियों का जवाब नहीं दिया, तो आरएसएस प्रमुख देवरस ने आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' बताने वाले विनोबा भावे से संपर्क साधा। 12 जनवरी, 1976 को लिखे अपने पत्र में विनोबा भावे से आग्रह किया कि आरएसएस पर प्रतिबंध हटाए जाने के लिए वे इंदिरा गाँधी को सुझाव दें। विनोबा भावे ने भी देवरस के पत्र का जवाब नहीं दिया। हताश देवरस ने विनोबा को एक और पत्र लिखा कि ”अख़बारों में छपी सूचनाओं के अनुसार प्रधानमंत्री (इंदिरा गाँधी) 24 जनवरी को वर्धा, पवनार आश्रम में आपसे मिलने आ रही हैं। उस समय देश की वर्तमान परिस्थिति के बारे में उनकी आपके साथ चर्चा होगी। मेरी आपसे याचना है कि प्रधानमंत्री के मन में आरएसएस के बारे में जो ग़लत धारणा घर कर गई है, आप कृपया उसे हटाने की कोशिश करें, ताकि आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सके और जेलो मे बंद आरएसएस के लोग रिहा होकर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की प्रगति के लिए सभी क्षेत्रों में अपना योगदान कर सकें।’’ 

इस कुनबे में चिट्ठी-सरेण्डर सावरकर साब के जमाने से चल रहा है। ऐसे महान सरेंडर रिकॉर्ड वाले जब उस इमरजेंसी को लेकर टसुये बहाते हैं और उससे अधिक बर्बर राज लाते हैं, तो अपनी फासिस्ट प्रशिक्षित प्रजाति का दोमुंहापन उजागर कर रहे होते हैं ;  यह संयोग नहीं है कि इमरजेंसी जिनके जुल्मों और अत्याचारों के लिए कुख्यात हुई, वे भाजपा के माननीय नेता बने। संजय गाँधी की राजनीतिक विरासत के रूप में मेनका गाँधी और तुर्कमान गेट की बर्बरता के दोषी जगमोहन भाजपा ने चंदन की तरह माथे पर धारे। 

जरूरत उस इमरजेंसी के सबकों को याद करने की है ताकि आज की इस अघोषित और ज्यादा बर्बर इमरजेंसी का मुकाबला किया जा सके। जरूरत इन पाखंडियों को बेनकाब करने की भी है । ऐसा करते हुए ही संविधान, उसमे वर्णित अधिकारों और लोकतंत्र को बचाने के साथ-साथ मेहनतकश जनता, सभ्य समाज और देश के भविष्य को बेहतरी की ओर ले जाने के अनुकूल वातावरण बनाया जा सकता है।

इसे कई बार कहा जा चुका है, दोहराने में हर्ज नहीं कि जो अपने इतिहास से सबक नहीं लेते, वे उस इतिहास को फिर से भुगतने के लिए अभिशप्त होते हैं — पहले प्रहसन में, उसके बाद त्रासदी में! 

(आलेख : बादल सरोज)

(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)